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मङ्गलाचरण तथा अग्नि और वसिष्ठके संवाद-रूपसे अग्निपुराणका आरम्भ | अग्नि पुराण अध्याय 1 | Agni purana chapter 1

अग्नि पुराण अध्याय
                           
मङ्गलाचरण तथा अग्नि और वसिष्ठके संवाद-रूपसे अग्निपुराणका आरम्भ

       श्रियं सरस्वतीं गौरी गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
       ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्॥

     'लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, गणेश,कार्तिकेय,महादेवजी, ब्रह्मा, अग्नि, इन्द्र आदि देवताओं तथा भगवान् वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ'॥१॥
      नैमिषारण्यकी बात है। शौनक आदि ऋषिय ज्ञोंद्वारा भगवान् विष्णुका यजन कर रहे थे।। उस समय वहाँ तीर्थयात्राके प्रसङ्गसे सतजी पधारे। महर्षियोंने उनका स्वागत-सत्कार करके कहा-॥२॥
      ऋषि बोले---सूतजी! आप हमारी पूजास्वीकार करके हमें वह सारसे भी सारभूत तत्त्वब तलानेकी कृपा करें, जिसके जान लेनेमात्रसे सर्वज्ञता प्राप्त होती है॥३॥
      सूतजीने कहा---ऋषियो! भगवान् विष्णु हीसा रसे भी सारतत्त्व हैं। वे सृष्टि और पालन आदिके कर्ता और सर्वत्र व्यापक हैं। 'वहवि ष्णुस्वरूप ब्रह्म मैं ही हूँ'-इस प्रकार उन्हें जान लेनेपर सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है ब्रह्मकेदो स्वरूप जाननेके योग्य हैं-शब्दब्रह्म औरप रब्रह्म। दो विद्याएँ भी जाननेके योग्य हैं-अपरा विद्या और परा विद्या। यह अथर्ववेदकी श्रुतिका कथन है। एक समयकी बात है, मैं, शुकदेवजीतथा पैल आदि ऋषि बदरिका श्रमको गये औरव हाँ व्यासजीको नमस्कार करके हमने प्रश्न किया। तब उन्होंने हमें सारतत्त्वका उपदेश देना आरम्भ किया॥४-६॥
      व्यासजी बोले---सूत! तुम शुक आदिके साथ सनो।    एक समय मनियोंके साथ मैंने महर्षि वसिष्ठजीसे सारभूत परात्पर ब्रह्मके विषयमें पूछा था। उस समय उन्होंने मुझेजैसा उपदेश दिया था, वही तुम्हें बतला रहा हूँ॥७॥
      वसिष्ठजीने कहा---व्यास! सर्वान्तर्यामी ब्रह्मके दो स्वरूप हैं। मैं उन्हें बताता हूँ, सुनो! पूर्वकालमें ऋषि-मुनि तथा देवताओंसहित मुझसे अग्निदेवने इस विषयमें जैसा, जो कुछ भी कहा था, वही मैं (तुम्हें बता रहा हूँ) अग्निपुराण सर्वोत्कृष्ट है। इसका एक-एक अक्षर ब्रह्मविद्या है,अतएव यह 'परब्रह्मरूप' है। ऋग्वेद आदिसम्पूर्ण वेद-शास्त्र 'अपरब्रह्म' हैं। परब्रह्मस्वरूप अग्निपुराण सम्पूर्ण देवताओंके लिये परम सुखद है। अग्निदेवद्वारा जिसका कथन हुआ है, वह आग्नेयपुराण वेदोंके तुल्य सर्वमान्य है। यह पवित्र पुराण अपने पाठकों और श्रोताजनोंको भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। भगवान् विष्णु  ही कालाग्निरूपसे विराजमान हैं। वे ही ज्योतिर्मय परात्पर परब्रह्म हैं। ज्ञानयोग तथा कर्मयोगद्वारा उन्हींका पूजन होता है। एक दिन उन विष्णुस्वरूप अग्निदेवसे मुनियोंसहित मैंने इस प्रकार प्रश्न किया॥८-११॥
        वसिष्ठजीने पूछा---अग्निदेव! संसारसागरसे पार लगानेके लिये नौकारूप परमेश्वर ब्रह्मकेस्वरूपका वर्णन कीजिये और सम्पूर्ण विद्याओंके सारभूत उस विद्याका उपदेश दीजिये, जिसे जानकर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है ॥१२॥
       अग्निदेव बोले---वसिष्ठ! मैं ही विष्णु हूँ, मैं ही काग्निरुद्र कहलाता हूँ। मैं तुम्हें सम्पूर्णवि द्याओंकी सार भूता विद्याका उपदेश देता हूँ,जिसे अग्निपुराण कहते हैं। वही सब विद्याओंका सार है, वह ब्रह्मस्वरूप है। सर्वमय एवं सर्वकारणभूत ब्रह्म उससे भिन्न नहीं है। उसमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित आदिका तथा मत्स्य-कर्म आदि रूप धारण करनेवाले भगवान्का वर्णन है। ब्रह्मन्! भगवान् विष्णुकी स्वरूपभूता दो विद्याएँ हैं-एक परा और दूसरी अपरा। ऋक्,यजुः, साम और अथर्वनामक वेद, वेदके छहों अङ्ग-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्दःशास्त्र तथा मीमांसा, धर्मशास्त्र, पुराण,न्याय, वैद्यक (आयुर्वेद), गान्धर्व वेद (संगीत), धनुर्वेद और अर्थशास्त्र-यह सब अपरा विद्या है तथा परा विद्या वह है, जिससे उस अदृश्य,अग्राह्य, गोत्ररहित, चरणरहित, नित्य, अविनाशी ब्रह्मका बोध हो। इस अग्निपुराणको परा विद्या समझो। पूर्वकालमें भगवान् विष्णुने मुझसे तथाब्र ह्माजीने देवताओंसे जिस प्रकार वर्णन कियाथा, उसी प्रकार मैं भी तुमसे मत्स्य आदि अवतारधारण करनेवालेजगत्कारणभूत परमेश्वरका प्रतिपादन करूंगा॥१३-१९॥

   इस प्रकार व्यासद्वारा सूतके प्रति कहे गये आदि         आग्रेय महापुराणमें पहला अध्याय पूरा हुआ॥१॥

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